लॉकहीड मार्टिन का F-35 लाइटनिंग II स्टील्थ लड़ाकू विमान अपनी उन्नत क्षमताओं के कारण वैश्विक रक्षा क्षेत्र में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा सऊदी अरब को इस विमान की संभावित बिक्री की घोषणा ने दुनिया भर में इस शक्तिशाली मशीन की मांग को और बढ़ा दिया है। F-35 सिर्फ एक विमान नहीं, बल्कि अमेरिका की सामरिक श्रेष्ठता और कड़े सुरक्षा प्रोटोकॉल का प्रतीक है।
यह लड़ाकू विमान अत्यंत गोपनीय तकनीक से लैस है, जिसे अमेरिका केवल अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगियों के साथ ही साझा करता है। इस साझाकरण के लिए सख्त मानदंड निर्धारित हैं, और केवल चुनिंदा राष्ट्र ही इन योग्यताओं को पूरा कर पाते हैं।
F-35 की बिक्री पर अमेरिकी प्रतिबंध: एक महत्वपूर्ण नियम यह है कि अमेरिका उन देशों को F-35 नहीं बेचता है जहां रूसी S-400 वायु रक्षा प्रणाली तैनात है। तुर्की इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जिसने नाटो का सदस्य होने के बावजूद रूस से S-400 खरीदा। इसके परिणामस्वरूप, अमेरिका ने तुर्की को F-35 कार्यक्रम से बाहर कर दिया, भले ही तुर्की ने पहले से ही विमानों के लिए भुगतान कर दिया था। यह सौदा करीब ₹20,000 करोड़ का था, और अब तुर्की का S-400 सिस्टम बेकार पड़ा है, जबकि वह F-35 की महत्वाकांक्षाओं से वंचित रह गया है।
चीन का प्रभाव और F-35 का बहिष्कार: अमेरिका उन देशों को भी F-35 बेचने से बचता है जहां उसे चीनी प्रौद्योगिकी या प्रभाव का खतरा महसूस होता है। हुआवेई की 5G तकनीक को लेकर अमेरिका की चिंताएं जगजाहिर हैं, और इसी आधार पर कई पश्चिमी देशों ने हुआवेई के उपकरणों पर प्रतिबंध लगाया है। इसी तरह, F-35 की बिक्री को लेकर भी चीन के संभावित जासूसी खतरों को ध्यान में रखा जाता है। 2020 में, ब्रिटेन में हुआवेई टावरों की उपस्थिति पर चिंता जताई गई थी, जिससे F-35 की तैनाती पर सवाल उठे थे। संयुक्त अरब अमीरात को 50 F-35A विमानों की बिक्री योजना भी इसी चिंता के कारण रुक गई थी।
इजराइल का ‘गुणात्मक सैन्य बढ़त’ का सिद्धांत: मध्य पूर्व में, अमेरिका इजराइल की सैन्य श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है। इस ‘गुणात्मक सैन्य बढ़त’ के सिद्धांत के तहत, इजराइल को बड़ी संख्या में F-35A विमान प्राप्त हुए हैं। हालांकि, इस क्षेत्र के अन्य अरब देशों, जैसे कतर, यूएई और मिस्र को F-35 की पहुंच नहीं दी गई है। अब सऊदी अरब की F-35 की मांग ने इस क्षेत्र में एक नया भू-राजनीतिक मोड़ ला दिया है।
ताइवान और जासूसी का खतरा: अमेरिका उन देशों को F-35 की बिक्री से भी कतराता है जो तीव्र जासूसी के अधीन हैं। ताइवान, जिसे चीन से लगातार जासूसी का खतरा रहता है, इस श्रेणी में आता है। 2017 के एक अनुमान के अनुसार, चीन के हजारों जासूस ताइवान में सक्रिय हैं, जो F-35 जैसी गोपनीय तकनीक के लिए एक बड़ा जोखिम पैदा करते हैं।
सऊदी अरब को बिक्री पर पेंटागन की चिंता: राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा सऊदी अरब को 48 F-35 लड़ाकू विमानों की बिक्री का प्रस्ताव पेंटागन के लिए चिंता का विषय है। रक्षा अधिकारियों का मानना है कि इससे विमान की संवेदनशील तकनीक चीन के हाथों में पड़ सकती है, खासकर अगर सऊदी अरब चीन के साथ सैन्य अभ्यास करता है। यह लीक हुई जानकारी चीन के अपने J-20 स्टील्थ फाइटर को बेहतर बनाने में मदद कर सकती है।
F-35: दुनिया की सबसे महंगी विमान परियोजना: F-35 लाइटनिंग II, लॉकहीड मार्टिन द्वारा निर्मित, 1990 के दशक में पुराने लड़ाकू विमानों को बदलने के लिए विकसित किया गया था। यह दुनिया की सबसे महंगी हथियार परियोजना है, जिसके तीन वेरिएंट की कीमत ₹700 करोड़ से ₹944 करोड़ तक है। प्रति घंटे उड़ान की लागत लगभग ₹31.20 लाख है।
भारत की F-35 खरीद में हिचकिचाहट: अमेरिका ने भारत को F-35A की पेशकश पर विचार किया है, लेकिन लागत, रखरखाव और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की बाधाएं नई दिल्ली के लिए एक दुविधा पैदा कर रही हैं। उच्च लागत, जटिल रखरखाव और सीमित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की शर्तों के कारण, F-35 शायद भारत के लिए सबसे व्यावहारिक विकल्प न हो।
