हाल के भू-राजनीतिक घटनाक्रमों ने भारत को तुर्की और अज़रबैजान जैसे देशों के साथ बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के दौर में ला खड़ा किया है। यह मतभेद केवल सतही नहीं, बल्कि गहरे ऐतिहासिक, सामरिक और वैचारिक कारणों से जुड़ा है। भारत के साथ व्यापारिक संबंध होने के बावजूद, ये दोनों देश लगातार ऐसी नीतियों का समर्थन कर रहे हैं जो नई दिल्ली के राष्ट्रीय हितों के लिए चिंता का विषय हैं।
खासकर, भारत द्वारा मई में पाकिस्तान में की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से तुर्की का पाकिस्तान के प्रति झुकाव स्पष्ट रूप से बढ़ा है। भारत की जवाबी कार्रवाई, जो जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले का परिणाम थी, को तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने ‘अतिप्रतिक्रिया’ करार दिया और पाकिस्तान को कूटनीतिक समर्थन देने की पेशकश की। इस कदम को भारत ने पाकिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले ‘आतंकवादी पारिस्थितिकी तंत्र’ पर कार्रवाई करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन माना था।
भारत के विदेश मंत्रालय ने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए तुर्की से आतंकवाद के प्रति अपने समर्थन को समाप्त करने और ठोस कदम उठाने की मांग की।
**’इस्लामिक भाईचारा’ या रणनीतिक गठबंधन?**
तुर्की और पाकिस्तान के बीच संबंध सदियों पुराने और सांस्कृतिक रूप से गहरे हैं। कश्मीर मुद्दे पर तुर्की का लगातार पाकिस्तान का समर्थन, ‘इस्लामिक दुनिया’ में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका स्थापित करने की उसकी महत्वाकांक्षा को दर्शाता है। यह संबंध केवल वैचारिक नहीं, बल्कि सैन्य सहयोग तक फैला हुआ है। तुर्की पाकिस्तानी सेना को उन्नत ड्रोन, जैसे कि एसिसगार्ड और सोंगर, की आपूर्ति कर रहा है।
भारतीय सुरक्षा बलों ने हाल ही में एलओसी के पास से ऐसे ही तुर्की निर्मित ड्रोन बरामद किए हैं, जो पाकिस्तान द्वारा सीमा पार घुसपैठ के लिए इनका इस्तेमाल किए जाने की आशंका को बल देता है। यह चिंताजनक है कि विदेशी हथियार, विशेष रूप से पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश से, भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बन रहे हैं। यह गठजोड़ भारत के सुरक्षा विमर्श को जटिल बना रहा है।
**अज़रबैजान का भारत विरोध: आर्मेनिया फैक्टर**
तुर्की की तरह, अज़रबैजान भी हालिया घटनाक्रमों में पाकिस्तान के साथ खड़ा नजर आया है। भारत के सैन्य अभियान की निंदा करते हुए, अज़रबैजान ने शांतिपूर्ण समाधान का आग्रह किया, जो स्पष्ट रूप से भारत के रुख के विरुद्ध था।
इस सहयोग के पीछे 2021 की ‘शुशा घोषणा’ का महत्वपूर्ण योगदान है, जिसने तुर्की और अज़रबैजान के बीच रक्षा, आर्थिक और अवसंरचनात्मक सहयोग को मजबूत किया है। ‘मिडिल कॉरिडोर’ जैसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट दोनों देशों को जोड़ने के साथ-साथ क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को भी प्रभावित कर रहे हैं।
अज़रबैजान का भारत के प्रति विरोध काफी हद तक उसके अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता से जुड़ा है, विशेषकर आर्मेनिया के साथ। भारत द्वारा अर्मेनिया को आकाश मिसाइल जैसी रक्षा प्रणालियों की आपूर्ति, अज़रबैजान के लिए चिंता का विषय है, क्योंकि नागोर्नो-कराबाख क्षेत्र पर दोनों देशों के बीच लंबे समय से विवाद चल रहा है। भारत की आर्मेनिया के साथ बढ़ती दोस्ती, अज़रबैजान को सीधे तौर पर चुनौती देती है।
**’तीन भाइयों’ का उभरता गठबंधन**
तुर्की, अज़रबैजान और पाकिस्तान का यह बढ़ता हुआ गठजोड़ ‘थ्री ब्रदर्स’ के नाम से जाना जा रहा है। यह गठबंधन केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि संयुक्त सैन्य अभ्यासों और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक-दूसरे के हितों की पैरवी के रूप में भी देखा जा रहा है। यह भारत की विदेश नीति के लिए एक नई चुनौती पेश कर रहा है।
**कूटनीतिक और आर्थिक झटके**
इस ‘थ्री ब्रदर्स’ गठबंधन का भारत पर सीधा असर भी देखा जा रहा है। ‘ऑपरेशन सिंधूर’ के बाद तुर्की और अज़रबैजान के प्रति भारतीय यात्रियों के बढ़ते बहिष्कार के आह्वान और यात्रा रद्द करने के उदाहरण इसके प्रमाण हैं।
भारत ने भी जवाब में कार्रवाई की है। राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए, तुर्की की एयरपोर्ट सर्विस कंपनी ‘सेलेबी’ की सुरक्षा मंजूरी रद्द कर दी गई। यह कदम तुर्की के पाकिस्तान के साथ कथित सैन्य सहयोग की प्रतिक्रिया थी।
कूटनीतिक स्तर पर, भारत ने तुर्की से अपेक्षा की है कि द्विपक्षीय संबंध ‘मुख्य चिंताओं’ का सम्मान करें, जो पाकिस्तान के साथ उसके घनिष्ठ संबंधों पर एक स्पष्ट संकेत था। वहीं, अज़रबैजान ने भारत पर शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में उसकी सदस्यता को रोकने का आरोप लगाया है, इसे पाकिस्तान के प्रति भारत के रुख का बदला बताया है।
**सामरिक और राजनीतिक मायने**
तुर्की के लिए, पाकिस्तान और अज़रबैजान के साथ गठबंधन उसके इस्लामिक प्रभाव को बढ़ाने और पश्चिम तथा अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के मुकाबले अपनी स्थिति मजबूत करने का एक जरिया है। अज़रबैजान के लिए, यह क्षेत्रीय सहयोग को मजबूत करने और आर्मेनिया के माध्यम से भारत के बढ़ते प्रभाव को रोकने की रणनीति है।
भारत इसे अपने लिए एक गंभीर भू-राजनीतिक चुनौती के रूप में देख रहा है। नई दिल्ली का मानना है कि यह त्रिपक्षीय गठजोड़ केवल वैचारिक एकजुटता नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया, कॉकेशस और उससे आगे भारतीय प्रभाव को सीमित करने की एक सुनियोजित रणनीति है।
तुर्की और अज़रबैजान का भारत के प्रति विरोध केवल बातों तक सीमित नहीं है। यह ऐतिहासिक संबंधों, पाकिस्तान के प्रति वैचारिक झुकाव और अपने-अपने सामरिक लक्ष्यों से प्रेरित है। ‘शुशा घोषणा’ जैसे औपचारिक समझौतों और ‘थ्री ब्रदर्स’ जैसे अनौपचारिक गठबंधनों ने इसे और मजबूत किया है।
भारत इस चुनौती का सामना करने के लिए आर्मेनिया और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ अपने संबंधों को मजबूत कर रहा है, लेकिन तुर्की-अज़रबैजान अक्ष के साथ तनाव भारत की विदेश नीति के लिए एक महत्वपूर्ण और जटिल समस्या बनी हुई है।
