दुनिया भर में परमाणु हथियारों को लेकर सरगर्मी तेज हो गई है, और भारत में इस बात पर चर्चा हो रही है कि क्या अब देश को अपनी परमाणु शक्ति का प्रदर्शन करने का समय आ गया है, जिसमें हाइड्रोजन बम परीक्षण भी शामिल है। यह बहस विशेष रूप से तब बढ़ी जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कथित तौर पर अमेरिका को परमाणु परीक्षणों के लिए तैयार रहने का आह्वान किया, जो 1992 से लंबित था। इसी बीच, रूस द्वारा ‘पोसाइडन’ नामक परमाणु-सक्षम पनडुब्बी ड्रोन का परीक्षण और ट्रम्प के पाकिस्तान पर गुप्त परमाणु प्रयोगों के आरोप ने इस मुद्दे को और हवा दी है।
भले ही रूस ने पोसाइडन परीक्षणों में परमाणु पहलू से इनकार किया हो, इन वैश्विक घटनाक्रमों ने परमाणु शक्ति संतुलन को हिला दिया है और दक्षिण एशिया में रणनीतिक समीकरणों को नया मोड़ दिया है।
**भारत की ‘नो-फर्स्ट-यूज़’ नीति पर सवाल**
भारत ने 1998 में पोकरण-II परमाणु परीक्षणों के बाद खुद को एक परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र घोषित किया था। तब से, देश ने ‘नो-फर्स्ट-यूज़’ (पहले उपयोग नहीं) की नीति का पालन करते हुए ‘क्रेडिबल मिनिमम डेटरेंस’ (विश्वसनीय न्यूनतम निवारक) बनाए रखा है। हालांकि, हालिया वैश्विक परमाणु गतिविधियों ने भारतीय रणनीतिकारों को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या इस संयम की नीति को जारी रखना दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए फायदेमंद है।
जाने-माने रणनीतिकार प्रोफेसर हैप्पीमोन जैकब ने सुझाव दिया है कि यदि अमेरिका जैसे देश परीक्षण फिर से शुरू करते हैं, तो भारत को भी अपनी थर्मोन्यूक्लियर क्षमताओं को साबित करने और 1998 के परीक्षणों के बारे में किसी भी संदेह को दूर करने के लिए ऐसा करना चाहिए।
**परमाणु शस्त्रागार और भविष्य की चुनौतियाँ**
वर्तमान अनुमानों के अनुसार, भारत के पास लगभग 180 परमाणु वॉरहेड हैं, जबकि पाकिस्तान के पास 170 हैं और यह संख्या बढ़ सकती है। चीन का शस्त्रागार कहीं अधिक बड़ा है, जिसके पास लगभग 600 वॉरहेड हैं और भविष्य में इसके और बढ़ने की संभावना है। चीन की उन्नत मिसाइलें, जैसे कि MIRV-सक्षम DF-41, भारत के लिए एक गंभीर सुरक्षा चुनौती पेश करती हैं।
**राजनयिक जोखिम बनाम सामरिक अनिवार्यता**
भारत के दो परमाणु-पड़ोसी हैं – पाकिस्तान और चीन। ऐसे में, देश को एक जटिल दोहरे निवारक परिदृश्य का सामना करना पड़ता है। यदि वैश्विक परमाणु परीक्षणों का दौर फिर से शुरू होता है, तो भारत पर भी दबाव बढ़ सकता है। हालाँकि, भारत द्वारा परमाणु परीक्षण को फिर से शुरू करने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना और संभावित प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि इसने अब तक अपनी जिम्मेदार परमाणु नीति के कारण महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौते हासिल किए हैं।
इसके विपरीत, यदि प्रमुख परमाणु शक्तियाँ परीक्षणों के माध्यम से अपनी क्षमताओं का आधुनिकीकरण करती हैं, तो भारत को तकनीकी रूप से पिछड़ने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए। ऐसे में, परीक्षण न केवल थर्मोन्यूक्लियर डिजाइनों को मान्य करने में मदद कर सकता है, बल्कि MIRV-सक्षम मिसाइलों के लिए वॉरहेड के लघुकरण को भी बढ़ावा दे सकता है, जिससे भारत की निवारक क्षमताएं मजबूत होंगी। यह एक नाजुक संतुलन है, जहाँ भारत को अपनी सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के बीच सावधानी से चुनना होगा।
