बढ़ते वैश्विक परमाणु तनाव के बीच, भारत के लिए अपनी परमाणु क्षमताओं को मजबूत करने का समय आ गया है। हालिया अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों ने नई दिल्ली के रणनीतिक गलियारों में इस बात पर नई बहस छेड़ दी है कि क्या भारत को अपने थर्मोन्यूक्लियर कार्यक्रम को फिर से सक्रिय करना चाहिए। यह चर्चा तब बढ़ी जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका को संभावित परमाणु परीक्षणों के लिए तैयार रहने का निर्देश दिया, जो 1992 के बाद से चला आ रहा तीन दशकों का विराम तोड़ सकता है। रूस द्वारा ‘पोसाइडन’ नामक परमाणु-सक्षम अंडरवाटर ड्रोन के परीक्षण की खबरें और ट्रम्प के पाकिस्तान द्वारा गुप्त परमाणु प्रयोगों के दावों ने स्थिति को और जटिल बना दिया है।
हालांकि रूस ने ‘पोसाइडन’ परीक्षणों में परमाणु प्रकृति से इनकार किया है, इन घटनाओं ने वैश्विक शक्ति संतुलन को हिला दिया है और दक्षिण एशिया में सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा दिया है।
इन अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों का भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसने 1998 में पोखरण-II परमाणु परीक्षणों के बाद से स्वयं पर परमाणु परीक्षणों का स्थगन लगाया हुआ है। भारत की ‘नो-फर्स्ट-यूज़’ (NFU) नीति और ‘विश्वसनीय न्यूनतम निवारक’ बनाए रखने की प्रतिबद्धता दशकों से क्षेत्रीय स्थिरता का एक महत्वपूर्ण स्तंभ रही है। लेकिन, बदलता वैश्विक परिदृश्य अब भारत के नीति निर्माताओं को यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि क्या वर्तमान संयम भारत के दीर्घकालिक सुरक्षा हितों के लिए उचित है।
जाने-माने रणनीतिकार और ‘सेंटर फॉर सिक्योरिटी एंड डेवलपमेंट रिसर्च’ के संस्थापक प्रोफेसर हैप्पीमोन जैकब ने हाल ही में कहा है कि यदि अमेरिका परमाणु परीक्षणों पर से अपना प्रतिबंध हटाता है, तो भारत को भी इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। उनके अनुसार, ऐसे परीक्षण भारत की थर्मोन्यूक्लियर क्षमताओं की पुष्टि करेंगे और 1998 के परीक्षणों से जुड़ी किसी भी अनिश्चितता को समाप्त करेंगे।
आंकड़ों की बात करें तो, फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स (FAS) के मुताबिक, 2025 तक भारत के पास लगभग 180 परमाणु वारहेड होने का अनुमान है। वहीं, पाकिस्तान के पास लगभग 170 वारहेड हैं और अनुमान है कि 2028 तक यह संख्या 200 तक पहुंच सकती है। दूसरी ओर, चीन का परमाणु जखीरा काफी बड़ा है, जो 2025 में लगभग 600 वारहेड तक पहुंच चुका होगा और 2030 तक 1000 तक पहुंचने की उम्मीद है।
चीन की उन्नत DF-41 मिसाइल, जो कई स्वतंत्र रूप से लक्ष्य भेदने वाले री-एंट्री व्हीकल (MIRVs) ले जाने में सक्षम है, भारत के लिए एक अतिरिक्त सुरक्षा चुनौती पेश करती है। यह मिसाइल भारत की मिसाइल रक्षा प्रणालियों के लिए एक गंभीर खतरा है।
भारत ने 1998 में पोखरण-II के बाद, जिसमें हाइड्रोजन बम परीक्षण का दावा भी शामिल था, खुद को एक परमाणु शक्ति घोषित किया था।
भारत के सामने दो परमाणु-शक्तिशाली पड़ोसी – पाकिस्तान और चीन – होने के कारण, वह एक अनोखी दोहरी निवारक चुनौती का सामना कर रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि वैश्विक परमाणु परीक्षणों का दौर फिर से शुरू होता है, तो भारत को अपनी सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठाने पड़ सकते हैं।
हालांकि, किसी भी नए परीक्षण के गंभीर अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक परिणाम हो सकते हैं। भारत का वर्तमान परीक्षण स्थगन उसकी जिम्मेदार परमाणु शक्ति की छवि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, जिसने उसे अमेरिका-भारत असैन्य परमाणु समझौते जैसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौतों को हासिल करने में मदद की है। परीक्षणों को फिर से शुरू करने से भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को ठेस पहुंच सकती है और उस पर प्रतिबंध भी लग सकते हैं।
दूसरी ओर, यह तर्क भी दिया जा रहा है कि यदि अमेरिका और रूस जैसे प्रमुख देश अपने प्रतिबंधों को शिथिल करते हैं, तो भारत को पीछे नहीं रहना चाहिए। नए परीक्षणों से भारत अपनी थर्मोन्यूक्लियर प्रौद्योगिकी को साबित कर सकता है, MIRV-सक्षम मिसाइलों के लिए अपने वारहेड्स को उन्नत कर सकता है, और अपनी निवारक क्षमताओं को और मजबूत कर सकता है।
वर्तमान में, नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं, जिनमें अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, यूके, भारत, पाकिस्तान, इज़राइल और उत्तर कोरिया शामिल हैं। इनमें से पांच देशों के पास हाइड्रोजन बम की क्षमता सिद्ध है, जबकि भारत और उत्तर कोरिया के दावों को अभी भी पूरी तरह से सत्यापित नहीं माना गया है।
जैसे-जैसे वैश्विक परमाणु प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है और एशिया रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता का केंद्र बनता जा रहा है, आने वाले वर्ष यह तय करेंगे कि क्या भारत संयम की नीति पर बना रहेगा या अपनी हाइड्रोजन बम शक्ति को प्रदर्शित करके दुनिया को अपनी क्षमता का एहसास कराएगा।
									 
					