दक्षिण कोरिया के सियोल में 30 अक्टूबर को होने वाली अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए एक अहम मोड़ साबित हो सकती है। दुनिया की दो सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों के बीच बढ़ते व्यापार युद्ध के बीच, यह बैठक एक संभावित शांति समझौते या फिर और बड़े आर्थिक झटके का मंच तैयार कर सकती है। वाशिंगटन ने इस मुलाकात की पुष्टि कर दी है, जिसने बीजिंग की ओर से कड़ी निगरानी का माहौल बना दिया है।
हाल के महीनों में दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर रहा है। चीन ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए दुर्लभ पृथ्वी खनिजों के निर्यात पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं, जो आधुनिक तकनीक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और जिनकी आपूर्ति पर चीन का एकाधिकार है। यह कदम अमेरिका के लिए एक बड़ी चुनौती है।
इसके तुरंत बाद, ट्रंप प्रशासन ने चीन से आने वाले सभी उत्पादों पर 100% टैरिफ लगाने की धमकी दी, जो नवंबर से प्रभावी हो सकता है। यह घोषणा वैश्विक बाजारों में घबराहट पैदा करने वाली थी और इसने दोनों देशों के बीच आर्थिक युद्ध को और तेज कर दिया।
हालांकि, पर्दे के पीछे कूटनीतिक प्रयास जारी हैं। दोनों देशों के अधिकारी “समझौते की उम्मीद” जता रहे हैं, भले ही सार्वजनिक बयानबाजी तीखी हो। बातचीत जारी है, जो दर्शाती है कि पूर्ण युद्ध से बचने की कोशिशें अभी भी चल रही हैं।
बाजारों की प्रतिक्रिया बेहद संवेदनशील है, जो हर छोटी-बड़ी खबर पर उछल-कूद कर रहे हैं। ट्रंप का लक्ष्य एक व्यापक व्यापार समझौता है, जबकि चीन का रुख दबाव के आगे न झुकने का है। यह एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई बन गई है।
विशेषज्ञों के अनुसार, यह शक्ति प्रदर्शन का खेल है। अमेरिकी पक्ष का मानना है कि यदि चीन इस बार पीछे हटता है, तो अमेरिका भविष्य के वैश्विक व्यापार नियमों को निर्देशित करने की स्थिति में होगा। वहीं, चीन का मानना है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व को किसी बाहरी दिखावे की आवश्यकता नहीं है।
चीन ने भी रणनीतिक रूप से अपने आर्थिक वार चुने हैं। अमेरिका के सोयाबीन उत्पादक क्षेत्र, जो ट्रंप के समर्थन का एक प्रमुख आधार है, बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। अमेरिका से चीन जाने वाले सोयाबीन के शिपमेंट अब ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों की ओर मुड़ गए हैं, जिससे व्यापार के वैश्विक नक्शे में बदलाव आ रहा है।
इसके बावजूद, चीन अपने निर्यातकों को कमजोर चीनी युआन का लाभ देते हुए बढ़ावा दे रहा है। लेकिन चीन खुद भी आंतरिक आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिसमें रियल एस्टेट क्षेत्र की समस्याएं प्रमुख हैं। नतीजतन, एप्पल और नाइके जैसी कंपनियां उत्पादन को भारत और दक्षिण पूर्व एशिया जैसे देशों में स्थानांतरित कर रही हैं ताकि वे भविष्य के किसी भी आर्थिक झटके से खुद को बचा सकें।
दूसरी ओर, अमेरिका ने उन्नत प्रौद्योगिकी, विशेष रूप से सेमीकंडक्टर चिप्स के निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर चीन की तकनीकी प्रगति को धीमा करने की कोशिश की है। चीन की सरकार इन नीतियों पर बारीकी से नजर रख रही है और भविष्य की जवाबी कार्रवाइयों की योजना बना रही है।
यह कूटनीतिक जंग वित्तीय बाजारों को भी प्रभावित कर रही है। ट्रंप के पिछले टैरिफ संबंधी बयानों ने वैश्विक शेयर बाजारों में खरबों डॉलर का नुकसान पहुंचाया था। चीन, अपनी केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के साथ, इन झटकों का सामना करने के लिए त्वरित और संगठित प्रतिक्रियाएं देने में सक्षम है।
हाल के वर्षों में, चीन ने व्यापार को एक राष्ट्रीय एजेंडे के हिस्से के रूप में इस्तेमाल किया है। इस व्यापार युद्ध को घरेलू स्तर पर राष्ट्रीय गौरव और प्रतिरोध की परीक्षा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
अमेरिकी विश्लेषक मानते हैं कि चीन अमेरिकी राष्ट्रपति की मानसिकता को समझता है – ट्रंप मजबूत विरोधियों का सम्मान करते हैं, लेकिन एक बार हद पार होने पर वे कठोर कार्रवाई करते हैं।
साथ ही, ट्रंप के अपने सलाहकार नीतियों को प्रभावित करने और बदलने की क्षमता रखते हैं, जिससे अप्रत्याशितता का तत्व बना रहता है।
सियोल में, अधिकारी इस महत्वपूर्ण मुलाकात के लिए सभी व्यवस्थाएं कर रहे हैं। एक समझौता हो सकता है, या कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर सहमति बन सकती है। हालांकि, सतह के नीचे गहरे मतभेद बने हुए हैं जिन्हें आसानी से दूर नहीं किया जा सकता। एक बड़े सफल परिणाम की संभावना कम दिखाई देती है।
दुनिया इस नाजुक स्थिति को उम्मीद और आशंका के साथ देख रही है। एक गलत कदम वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक गंभीर संकट में धकेल सकता है। यह मुलाकात सिर्फ दो नेताओं के बीच की बातचीत नहीं, बल्कि शक्ति, कूटनीति और राष्ट्रीय गौरव की एक बड़ी परीक्षा है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस खेल में कौन पहले पीछे हटेगा।
