काठमांडू की सड़कें एक बार फिर अशांति से जूझ रही हैं, संसद में आग लगी हुई है, और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया है। हालांकि, लगभग 50 लोगों की मौत के बावजूद, जनता का गुस्सा शांत नहीं हुआ है। यह सिर्फ सोशल मीडिया पर प्रतिबंध या भ्रष्टाचार के खिलाफ विद्रोह नहीं है, बल्कि नेपाल के इतिहास में बार-बार दोहराए जाने वाले एक चक्र का एक और अध्याय है, जहां हर विद्रोह… हर आंदोलन बदलाव का वादा करता है, लेकिन अंत में सिर्फ निराशा मिलती है। सत्ता बदलती है, नए चेहरे आते हैं, लेकिन सामाजिक न्याय, समानता और सच्चे लोकतंत्र की जड़ें कभी गहरी नहीं हो पातीं, और फिर वही अधूरापन, अगले संकट को जन्म देता है।
नेपाल के इतिहास में अधूरी क्रांतियों का वर्णन फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी पुस्तक, नेपाली क्रांति की कथा में किया है। उनके अनुसार, क्रांति का लक्ष्य केवल सत्ता बदलना नहीं था, बल्कि समानता और न्याय की दिशा में पहला कदम था। आज उठ रही आवाजें, चाहे वे हिंसक हों या शांतिपूर्ण, सदियों से अधूरी न्याय और समानता की प्यास की गूंज हैं। हम इस लेख में इस अधूरे संघर्ष की परतों को खोलेंगे और देखेंगे कि क्या इस बार कुछ बदलेगा या फिर वही धोखा मिलेगा? आइए, इतिहास पर एक नजर डालते हैं।
1951: क्रांति की शुरुआत, राणा शासन का अंत और लोकतंत्र का उदय
1951 में, नेपाल में राणा शासन का अंत हुआ, जो नेपाली कांग्रेस, वामपंथी समूहों और राजा त्रिभुवन के सहयोग से संभव हुआ। भारत के हस्तक्षेप से राजा को फिर से स्थापित किया गया, लेकिन राजनीतिक दलों को मान्यता मिली और चुनाव का वादा किया गया। इस आंदोलन को नेपाल में स्वतंत्रता के नए युग की शुरुआत के रूप में देखा गया। हालांकि, ‘नेपाली क्रांति की कथा’ में कहा गया है कि यह केवल आधी क्रांति थी: राजशाही अभी भी सत्ता में थी, नौकरशाही वैसी ही रही, और लोकतंत्र के वादे कमजोर रहे।
1959 में, बीपी कोइराला लोकतांत्रिक तरीके से प्रधानमंत्री बने, लेकिन राजा महेंद्र ने 18 महीने बाद उन्हें बर्खास्त कर दिया, संसद भंग कर दी, और उन्हें जेल में डाल दिया। फिर, नेपाल में पंचायती व्यवस्था लागू की गई। इस तरह, 1951 की उम्मीदें अधूरी रह गईं, और नेपाल तीन दशकों तक सीमित लोकतंत्र के जाल में फंस गया।
1960-1990: पंचायत और असंतोष का दौर
1960 से 1990 तक, नेपाल में राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, असहमति को दबा दिया गया था, और लोकतांत्रिक आवाजों को चुप करा दिया गया था। छात्र, मजदूर और भूमिगत कार्यकर्ता निराश थे। वे वर्षों से अपने अधिकारों और प्रतिनिधित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन राज्य की संरचना के कारण उन्हें बार-बार असफलता मिली। शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशासन में सुधार की योजनाएँ केवल कागजों तक ही सीमित रहीं, और जमीन पर कोई बदलाव नहीं हुआ। असंतोष धीरे-धीरे बढ़ा और छोटे-छोटे विद्रोह शुरू हुए।
1980 के दशक के अंत में, आर्थिक संकट, भ्रष्टाचार और असमानता ने जनता के गुस्से को चरम पर पहुंचा दिया। 1990 में, जनता सड़कों पर उतरी, हजारों प्रदर्शनकारियों ने विद्रोह किया और कई लोगों की मौत हो गई। अंततः, राजा बीरेंद्र शाह को बहुदलीय लोकतंत्र का मार्ग खोलना पड़ा। यह विद्रोह केवल राजशाही के खिलाफ नहीं था, बल्कि दबे हुए लोगों की आवाजों का प्रतीक था, जिसने नेपाल में लोकतांत्रिक चेतना के बीज बोए।
1990: कमजोर लोकतंत्र की शुरुआत
1990 में, नया संविधान लागू होने के बाद, नेपाल में लोगों के बीच आशा की एक लहर दौड़ पड़ी। नेपाल संवैधानिक राजतंत्र और बहुदलीय लोकतंत्र में बदल गया। वर्षों के कठोर राजतंत्र और असमानता के बाद, लोगों ने पहली बार खुली राजनीतिक प्रक्रिया देखी, और उन्हें लगा कि उनका जीवन बदल जाएगा। राजनीतिक दल सत्ता के लिए होड़ में लग गए, लेकिन आपसी संघर्ष और आंतरिक विवादों के कारण स्थिरता हासिल नहीं हो सकी।
1991 से 2001 तक, नौ सरकारें आईं और गईं। दलित, आदिवासी, मधेसी और महिलाएं सत्ता से बाहर रहीं। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास में कोई खास सुधार नहीं हुआ। लोकतंत्र राजधानी तक ही सीमित रह गया, जबकि पिछड़े इलाकों में असमानता की जड़ें गहरी होती गईं। जनता को लगा कि बदलाव केवल दिखावा है, और न्याय दूर है। इसने माओवादी विद्रोहों को जन्म दिया।
1996-2006: माओवादी जनयुद्ध
1996 में, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने हथियार उठा लिए और सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया। उनका लक्ष्य राजशाही को उखाड़ फेंकना और एक समावेशी गणराज्य बनाना था। यह न केवल सत्ता के लिए लड़ाई थी, बल्कि जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर असमानता के खिलाफ लोगों की आवाज भी थी। 10 साल तक, इस आग ने नेपाल को झुलसाया। 17,000 से अधिक मौतें हुईं, हजारों लापता हुए, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई। विद्रोह ने दिखाया कि हाशिए के समुदाय अपनी आवाज उठाने के लिए तैयार हैं। हालांकि, सत्ता का जवाब क्रूर था: पुलिस के हिंसक अभियान, गिरफ्तारियां, और भय का वातावरण बना रहा।
2001 में, शाही परिवार का नरसंहार हुआ, जिसमें राजा बीरेंद्र और उनके परिवार के कई सदस्य मारे गए, जिससे राजशाही की वैधता कमजोर हो गई। 2005 में, राजा ज्ञानेंद्र द्वारा सत्ता पर नियंत्रण करने की कोशिश के बाद, माओवादी और मुख्यधारा के राजनीतिक दल एक साथ आ गए।
2006: जन आंदोलन और गणतंत्र की स्थापना
अप्रैल 2006 में, जन आंदोलन II ने इतिहास रचा। लाखों लोग सड़कों पर उतरे, कर्फ्यू तोड़ा और काठमांडू में लोकतंत्र की मांग की। नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा, माओवादी नेता प्रचंड और बाबूराम भट्टराई ने जनता के आक्रोश को दिशा दी और सामाजिक मांगों को राष्ट्रीय मंच पर रखा। यह केवल पार्टियों के बीच संघर्ष नहीं था, बल्कि लंबे समय से चली आ रही निराशा, अन्याय और सच्चे लोकतंत्र की इच्छा का प्रतीक था।
भारत के हस्तक्षेप और अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण, राजा ज्ञानेंद्र को झुकना पड़ा, राजशाही समाप्त हो गई और नेपाल को एक गणतंत्र घोषित किया गया। माओवादी शांति प्रक्रिया में शामिल हुए और संविधान निर्माण शुरू हुआ। यह नेपाल के लिए एक निर्णायक क्षण था। पहली बार, राजशाही को चुनौती मिली और एक समावेशी गणतंत्र की नींव रखी गई। लोगों की भागीदारी ने इसे नेपाल के आधुनिक इतिहास का एक स्वर्णिम पल बना दिया।
2015: संविधान और बहिष्कार
2008 से 2012 तक पहली संविधान सभा गतिरोध में फंसी रही, जबकि 2013 में दूसरी चुनी गई और 2015 में एक नया संविधान जारी किया गया, जिसने संघीयवाद, धर्मनिरपेक्षता और गणतंत्रवाद का वादा किया। नेपाल के लिए यह लोकतंत्र का एक नया युग था, जिसमें स्थिरता और न्याय की उम्मीद थी। हालाँकि, मधेसी, थारू जैसे अल्पसंख्यक समुदायों ने खुद को इससे अलग महसूस किया।
अप्रैल 2015 में, एक विनाशकारी भूकंप आया जिसने देश को तबाह कर दिया। भारतीय सीमा पर नाकेबंदी से दर्द और बढ़ गया। संवैधानिक कमियों और असमान विकास ने पुराने तनावों को फिर से जन्म दिया। यह साबित हो गया कि बिना संरचनात्मक परिवर्तन के लोकतंत्र अधूरा है।
2015-2025: निराशा और उम्मीद
2015 के बाद, नेपाल एक गणतंत्र बन गया, लेकिन वादे अधूरे रहे। कांग्रेस, यूएमएल और माओवादी सरकारें अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में विफल रहीं। संघवाद कमजोर रहा, स्थानीय प्रशासन अक्षम रहा, और संसाधनों की कमी के कारण विकास बाधित हुआ। भ्रष्टाचार फैला, युवाओं के लिए रोजगार सीमित थे, और शिक्षा और स्वास्थ्य में नाममात्र का सुधार हुआ। ग्रामीण और सीमावर्ती क्षेत्रों में जीवन वही रहा। हालांकि, 2022 में बालेन्द्र शाह उर्फ बालेन काठमांडू के मेयर बने, जो एक लोक नायक बन गए। उन्होंने अवैध निर्माण को हटाया और जवाबदेही बढ़ाई। उनकी लोकप्रियता दर्शाती है कि जनता पारदर्शी नेतृत्व चाहती है, लेकिन इससे राष्ट्रीय अस्थिरता पूरी तरह से नहीं बदली जा सकी।
2025 का संघर्ष: इतिहास का साया
8 सितंबर को, जेन-ज़ी विद्रोह भड़क उठा। नेपाल के युवाओं ने पूरे सिस्टम को हिला दिया, और उनके गुस्से के तूफान से सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया। 9 सितंबर 2025 को प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का इस्तीफा कोई साधारण घटना नहीं थी, बल्कि दशकों से जमा निराशा का एक बड़ा विस्फोट था। काठमांडू में धुआं, हिंसा और संसद का जलना शायद पिछली अधूरी क्रांतियों का हिसाब था।
1951 में राणा शासन का अंत हुआ, लेकिन राजशाही बची रही। 1960 में, राजा महेंद्र ने बीपी कोइराला को बर्खास्त कर दिया और पंचायत प्रणाली लागू की। 1990 में बहुदलीय लोकतंत्र आया, लेकिन कोइराला, देउबा जैसे नेता स्थिरता लाने में विफल रहे।
1996 से 2006 तक माओवादी जनयुद्ध ने देश के सामाजिक और जातीय विभाजनों को बढ़ा दिया। 2006 में, शेर बहादुर देउबा की सरकार और माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड के बीच समझौते के बावजूद, संविधान निर्माण में असमानताएं बनी रहीं और कई वादे अधूरे रह गए। 2015 में संविधान लागू हुआ, लेकिन कई समूहों ने खुद को अलग-थलग महसूस किया, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनका विश्वास कमजोर हुआ। आज, नेपाल की सड़कों पर आक्रोश की लहर सिर्फ मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता का परिणाम नहीं है, बल्कि बार-बार टली गई उम्मीदों और अधूरे वादों का नतीजा है।
इस बार जेन-ज़ी का गुस्सा क्यों फूटा?
2025 में नेपाल की सड़कों पर युवा पीढ़ी, इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। बेरोजगारी 20% से अधिक है, लाखों युवा विदेशों में नौकरी की तलाश में हैं, और भ्रष्टाचार चरम पर है। जब सरकार ने सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाया, तो युवाओं ने वीपीएन और डिस्कॉर्ड के माध्यम से विरोध करना शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे के बाद भी प्रदर्शन जारी रहे, क्योंकि नेपाली नेताओं ने हर आंदोलन के बाद नई व्यवस्था का वादा किया, लेकिन सत्ता में आने के बाद परिवारवाद, भ्रष्टाचार और जनता से दूरी बनी रही।
माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड ने 2006 में कहा था, “आम लोग ही असली ताकत हैं, हम उनका विश्वास नहीं तोड़ेंगे।” लेकिन आज, उनकी पार्टी पर भ्रष्टाचार का आरोप है। पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने कहा है, “युवा हमारी रीढ़ हैं, लेकिन व्यवस्था में बदलाव में समय लगता है।”
जनरेशन Z का जवाब: ‘हम इंतजार नहीं कर सकते’
हर क्रांति के बाद, सत्ता पुराने चेहरों के पास लौट आती है। संविधान बदलता है, लेकिन व्यवस्था नहीं। राजनीतिक विश्लेषक रोमन गौतम लिखते हैं, “नेपाल में हर बदलाव सड़कों से शुरू होता है, लेकिन बंद कमरों में सौदेबाजी के साथ खत्म होता है।” 2015 के संविधान के बाद, मधेसी और जनजातीय समुदाय अलग-थलग महसूस करते रहे। 2025 के आंदोलन में युवाओं की मुख्य मांगें – जवाबदेही, पारदर्शिता और रोजगार – अभी भी अधूरी हैं।
आर्थिक और सामाजिक कारण
नेपाल की अर्थव्यवस्था का 25% हिस्सा रेमिटेंस से आता है, यानी विदेश में काम कर रहे युवाओं से। देश में निवेश की कमी है, शिक्षा प्रणाली कमजोर है, और सरकारी नौकरियों में पारदर्शिता नहीं है। युवाओं का कहना है, “हमें विदेश नहीं जाना है, हमें अपने देश में भविष्य चाहिए।”
क्या इस बार कुछ बदलेगा?
प्रदर्शनकारियों की नई रणनीति सोशल मीडिया, डिजिटल अभियानों और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के माध्यम से अपनी आवाज उठाना है। हालांकि, पुरानी पार्टियां फिर से संवाद, समझौतों और वादों का सहारा ले रही हैं। राजनीतिक विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि अगर युवाओं की मांगों को पूरा नहीं किया गया, तो नेपाल एक और खोया हुआ दशक देख सकता है।