आजकल भारतीय क्रिकेट में वर्कलोड मैनेजमेंट एक बड़ी बहस है, लेकिन एमएस धोनी ने इसे पहले ही समझ लिया था।
2004 में भारत के लिए डेब्यू करने वाले धोनी जल्द ही दुनिया के बेहतरीन विकेटकीपर-बल्लेबाजों में से एक बन गए। 2007 टी20 विश्व कप, 2011 वनडे विश्व कप और 2013 चैंपियंस ट्रॉफी में टीम का नेतृत्व करने के साथ-साथ टेस्ट टीम को नंबर 1 रैंकिंग तक पहुंचाया। इन सफलताओं के पीछे कड़ी मेहनत और वर्कलोड था।
पूर्व भारतीय फील्डिंग कोच आर श्रीधर ने बताया कि धोनी को अपने करियर के बीच में ही अपना तरीका बदलना पड़ा।
श्रीधर ने कहा, ”जब वह युवा थे और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पहचान बना रहे थे, तो उन्होंने विकेटकीपिंग पर बहुत मेहनत की। लेकिन जब उन्होंने भारत के लिए तीनों फॉर्मेट में खेलना शुरू किया, तो वर्कलोड इतना बढ़ गया कि उन्हें ज्यादा अभ्यास की जरूरत नहीं रही।”
धोनी ने रिपीटीटिव ड्रिल से तनाव कम करने का फैसला किया। आईपीएल और अन्य मैचों में लगातार खेलने की वजह से उनकी उंगलियों पर काफी दबाव पड़ता था।
श्रीधर ने बताया, ”उनकी उंगलियां लगातार गेंदें पकड़ने से थक जाती थीं। इसलिए उन्होंने विकेटकीपिंग की प्रैक्टिस कम कर दी और चुस्ती-फुर्ती के लिए रिएक्शन ड्रिल करना शुरू कर दिया।”
इस बदलाव से धोनी लंबे समय तक टॉप पर बने रहे।
धोनी ने 2014 में टेस्ट क्रिकेट से संन्यास ले लिया ताकि सफेद गेंद वाले क्रिकेट पर ध्यान दे सकें। इससे उनका अंतरराष्ट्रीय करियर 5 साल और लंबा चला और उन्होंने 2019 विश्व कप में आखिरी बार खेला।
धोनी के विकेटकीपिंग के आंकड़े शानदार हैं – 959 मैचों में 1,286 शिकार, जो उनकी कुशलता और फिटनेस का सबूत है। संन्यास के बाद भी, धोनी आईपीएल में सीएसके का नेतृत्व करते हैं और प्रशंसक 2026 सीज़न के लिए उनके फैसले का इंतजार कर रहे हैं।
धोनी की कहानी दिखाती है कि वर्कलोड मैनेजमेंट सिर्फ आराम करने के बारे में नहीं है, बल्कि ट्रेनिंग में बदलाव करने के बारे में भी है। धोनी की अनुकूलन क्षमता उन्हें आज भी पेशेवर क्रिकेट खेलने में मदद कर रही है।