झारखंड की न्याय व्यवस्था एक बार फिर दोहरे मापदंडों के आरोपों से घिर गई है। आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच के वरिष्ठ नेता विजय शंकर नायक ने राष्ट्रपति और भारत के मुख्य न्यायाधीश को भेजे एक पत्र में इस गंभीर मुद्दे को उठाया है। नायक ने बताया कि राज्य सूचना आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति और पेसा अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन जैसी महत्वपूर्ण जनहित याचिकाओं पर पिछले पांच वर्षों से अधिक समय से कोई निर्णायक सुनवाई नहीं हुई है, जबकि रिम्स परिसर से अतिक्रमण हटाने जैसे एक मामले में न्यायालय के आदेश पर मात्र 72 घंटे के भीतर बुलडोजर चला दिया गया।
नायक ने अपने पत्र में विस्तार से बताया है कि झारखंड उच्च न्यायालय में राज्य सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति तथा पेसा अधिनियम, 1996 के सही ढंग से लागू होने से संबंधित याचिकाएं लंबे समय से अटकी हुई हैं। इन याचिकाओं पर सुनवाई की तारीखें आगे बढ़ती रही हैं, पर कोई अंतिम फैसला नहीं आया है, जिससे सूचना के अधिकार का महत्व कम हो रहा है और आदिवासी समुदायों के संवैधानिक अधिकारों पर भी असर पड़ रहा है।
इसके विपरीत, रिम्स परिसर में हुए अतिक्रमण को हटाने के लिए झारखंड उच्च न्यायालय के निर्देश पर स्थानीय प्रशासन ने तेजी दिखाते हुए महज तीन दिनों में कार्रवाई पूरी कर ली। नायक ने इस त्वरित कार्रवाई और जनहित याचिकाओं के प्रति उपेक्षा के बीच के भारी अंतर पर आश्चर्य व्यक्त किया है। उन्होंने सवाल उठाया है कि क्या न्याय व्यवस्था में ऐसे मामले जानबूझकर धीमे कर दिए जाते हैं जहां जवाबदेही तय करनी हो, जबकि आम लोगों से जुड़े या त्वरित समाधान की आवश्यकता वाले मामलों में तुरंत कार्रवाई होती है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्याय में अत्यधिक देरी को अस्वीकार्य ठहराने के बावजूद, झारखंड में स्थिति जस की तस बनी हुई है। नायक के अनुसार, यह स्थिति संविधान के समानता के अधिकार, सूचना के अधिकार और पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों का उल्लंघन करती है। उन्होंने राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश से आग्रह किया है कि वे संविधान के संरक्षक के रूप में हस्तक्षेप करें और लंबित जनहित याचिकाओं पर शीघ्र तथा प्रभावी निर्णय सुनिश्चित करें।
