दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में संगीता बरुआ के नेतृत्व संभालने और रांची में शंभुनाथ चौधरी के रांची प्रेस क्लब के नए अध्यक्ष चुने जाने की खबरें, बिहार के पत्रकारों को एक कड़वी सच्चाई का अहसास करा रही हैं। यह अहसास पटना प्रेस क्लब की स्थापना में हुई विफलता और उसके पीछे के कारणों से जुड़ा है।
बिहार, जो लंबे समय से पत्रकारिता का गढ़ रहा है, आज भी अपने किसी संगठित प्रेस क्लब से वंचित है। यह स्थिति तब और दुखद हो जाती है जब हम यह देखते हैं कि 2019 में बिहार सरकार ने पटना में पत्रकारों के लिए एक अत्याधुनिक प्रेस क्लब भवन का निर्माण करवाया था। इस भव्य भवन के साथ पत्रकारों को एक सुनहरा अवसर मिला था। छह सौ से अधिक सदस्य बने, लाखों रुपये सदस्यता शुल्क के रूप में जमा हुए और सरकारी अनुदान भी मिला। सब कुछ एक मजबूत संस्था के निर्माण की ओर इशारा कर रहा था।
दुर्भाग्यवश, यह उम्मीद जल्द ही बिखर गई। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के व्यक्तिगत हित, अहंकार और सत्ता की खींचतान ने इस नेक पहल को राजनीति का शिकार बना दिया। नतीजतन, पटना प्रेस क्लब अपनी स्थापना से पहले ही दम तोड़ गया। सरकार को आखिरकार वह भवन वापस लेना पड़ा और उसे बिजली विभाग को सौंपना पड़ा। यह बिहार के पत्रकारों के लिए न केवल एक भवन का नुकसान था, बल्कि उनकी एकजुटता और सामूहिक प्रतिनिधित्व के अवसर का भी एक बड़ा झटका था।
इसकी तुलना में, झारखंड की राजधानी रांची में पत्रकारों ने एक मिसाल कायम की है। रघुवर दास सरकार के समय स्थापित रांची प्रेस क्लब पिछले सात वर्षों से लगातार प्रगति कर रहा है। यहां न केवल नियमित चुनाव होते हैं, बल्कि वे पूरी तरह से निष्पक्ष और लोकतांत्रिक भी होते हैं। राजेश सिंह के बाद, शंभुनाथ चौधरी अब क्लब के अध्यक्ष हैं, और उनके साथ विपिन उपाध्याय (उपाध्यक्ष), अभिषेक सिन्हा (सचिव) और कुबेर सिंह (कोषाध्यक्ष) भी निर्वाचित हुए हैं। यह एक मजबूत और स्थिर संस्था की निशानी है।
रांची प्रेस क्लब के पूर्व सचिव अमरकांत ने अपने कार्यकाल की उपलब्धियों का जो ब्योरा दिया है, वह पटना के पत्रकारों के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण है। उन्होंने वरिष्ठ पत्रकारों को वोटिंग का अधिकार दिया, क्लब के फंड को आठ लाख से बढ़ाकर 28 लाख कर दिया, और अनुभवी पत्रकारों को मुफ्त आजीवन सदस्यता दी। सदस्यता शुल्क को भी 600 से घटाकर 250 रुपये कर दिया गया, और सरकारी मदद से क्लब का नवीनीकरण कराया गया। यह दिखाता है कि कैसे एक समूह एकजुट होकर अपनी संस्था को मजबूत बना सकता है।
रांची प्रेस क्लब की यह सफलता बिहार के पत्रकारों को आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरित करती है। उन्हें उन स्वार्थी तत्वों पर भी विचार करना चाहिए जिन्होंने पटना में प्रेस क्लब की स्थापना के अवसर को बर्बाद कर दिया। जब तक बिहार के पत्रकार व्यक्तिगत एजेंडे से ऊपर उठकर सामूहिक भलाई के बारे में नहीं सोचेंगे, तब तक रांची जैसे सफल उदाहरण उन्हें उनकी कमियों का अहसास कराते रहेंगे।
