मेदिनीनगर में इप्टा की सांस्कृतिक पाठशाला में “संतों की परंपरा और हमारा समाज” विषय पर एक गहन विचार-विमर्श हुआ, जिसमें प्रोफेसर कद झा ने संतत्व की परिभाषा को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि संत वह व्यक्ति होता है जो सत्य की शक्ति रखता है और बिना किसी जाति या वर्ग के भेद के समाज को एकजुट करता है। प्रोफेसर झा के अनुसार, साधु और संत के बीच मुख्य अंतर यह है कि संत सत्य के मार्ग से ईश्वर प्राप्ति का रास्ता दिखाता है, जबकि साधु केवल एक साधक होता है।
प्रो. झा ने इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि जिन महान संतों ने मूर्तिपूजा का खंडन किया, आज उन्हीं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। उन्होंने कबीर, नानक, मीरा जैसे संतों का उदाहरण देते हुए कहा कि उनकी शिक्षाओं का सार सामाजिक एकता और सद्भाव था, न कि कर्मकांड। इस संवाद में पंकज श्रीवास्तव और कमल चंद किसपोटा जैसे प्रबुद्धजनों ने भी भाग लिया।
प्रेम प्रकाश ने वक्ताओं के विचारों को आगे बढ़ाते हुए समाज की सच्चाई को सामने रखा। उन्होंने बताया कि संतवाणी का सम्मान तो होता है, पर जीवन में उसे उतारना कठिन लगता है। गोविंद प्रसाद और अच्छे लाल प्रजापति जैसे शिक्षकों ने इस बात पर जोर दिया कि संतों के आदर्शों और सामाजिक व्यवहार के बीच की खाई को पाटना आवश्यक है। उन्होंने इस ऐतिहासिक तथ्य को भी रेखांकित किया कि संत परंपरा की शुरुआत तब हुई जब समाज में ऊंच-नीच और भेदभाव व्याप्त था, और संतों ने इन बेड़ियों को तोड़ने का प्रयास किया।
सुरेश सिंह ने कहा कि आज के युग में संतों का राजनीति में आना संत परंपरा की मूल भावना के विपरीत है, जिसका उद्देश्य समाज को जोड़ना और सत्य की राह दिखाना था। मिथिलेश कुमार ने चिंता जताई कि संतों की शिक्षाओं की गलत व्याख्या करके उनकी पवित्र परंपरा को अपवित्र किया जा रहा है।
अध्यक्षता कर रहे कमल चंद किसपोटा ने वर्तमान संदर्भ में सच्चे संत की पहचान बताते हुए कहा कि जो व्यक्ति आज कृत्रिम जीवन जी रहे मनुष्य को उसके प्राकृतिक और वास्तविक स्वरूप से जोड़ेगा, वही सच्चा संत कहलाएगा। पंकज श्रीवास्तव ने याद दिलाया कि संतों ने ईश्वर को व्यक्तिगत गुणों और चरित्र में देखा था, न कि केवल भौतिक प्रतिमाओं में, जबकि आज का समाज केवल बाहरी दिखावे तक सिमट गया है। कार्यक्रम का समापन रवि शंकर के धन्यवाद प्रस्ताव और पुस्तक वितरण के साथ हुआ।
