नई दिल्ली: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा है कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयकों को मंजूरी देने की कोई निश्चित समय-सीमा तय करना अदालतों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। शीर्ष अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यद्यपि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक कर नहीं रख सकते, किंतु समय-सीमा निर्धारित करना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का अतिक्रमण होगा। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि संवैधानिक प्राधिकारियों के कार्यों की न्यायिक समीक्षा तब तक संभव नहीं है जब तक कि विधेयक कानून का रूप न ले ले।
सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रूप से अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों के उपयोग पर बात करते हुए कहा कि इसका इस्तेमाल विधेयकों को ‘मान ली गई सहमति’ देने के लिए नहीं किया जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में, राज्यपालों के लिए कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। सामान्यतः, राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं: विधेयक को अपनी सहमति देना, विधेयक को पुनर्विचार हेतु वापस भेजना, या उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु अग्रेषित करना।
शीर्ष अदालत ने कहा, “राज्यपालों को विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने का असीमित अधिकार नहीं है।” राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत मांगी गई राय के जवाब में, पीठ ने दोहराया कि राज्यपाल के पास सहमति देने, पुनर्विचार के लिए वापस भेजने या राष्ट्रपति को संदर्भित करने का विकल्प होता है।
अदालत ने विशेष रूप से तमिलनाडु के राज्यपाल से संबंधित एक पूर्व मामले में ‘डीम्ड असेंट’ के प्रावधान पर अपनी असहमति जताई। इसे संवैधानिक प्राधिकारी के कार्यों में हस्तक्षेप माना गया। इसके अतिरिक्त, शीर्ष अदालत ने यह भी व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की शक्तियों को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता।
