बिहार विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की अभूतपूर्व जीत ने राजनीतिक विश्लेषकों और विपक्षी दलों को सकते में डाल दिया है। जिस चुनाव को नीतीश कुमार के खिलाफ दो दशक की एंटी-इन्कंबेंसी के कारण मुश्किल माना जा रहा था, वह महागठबंधन के लिए एक बड़ी हार में बदल गया। इस जीत के पीछे केवल चुनावी रणनीति ही नहीं, बल्कि ऐसे गहरे बदलाव भी छिपे हैं जिनकी जड़ें महीनों पहले, राज्य के बाहर बोई गई थीं।
रणनीति में बदलाव और विपक्ष की कमजोरियां:
इस बार के चुनाव 2020 से काफी अलग थे। RJD और कांग्रेस गठबंधन ने बेहतर तैयारी के साथ मैदान में उतरने का दावा किया था। राहुल गांधी की ‘वोट अधिकार यात्रा’ और तेजस्वी यादव के जनसंपर्क अभियानों ने कार्यकर्ताओं में जोश भरा था। दोनों नेता BJP-JD(U) गठबंधन के खिलाफ अधिक अनुभवी और आत्मविश्वास से भरे दिख रहे थे। इसके बावजूद, वे महत्वपूर्ण मौकों पर पिछड़ गए।
कांग्रेस की ओर से तेजस्वी यादव को स्पष्ट मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने में झिझक एक बड़ी चूक साबित हुई। इस अस्पष्टता ने गठबंधन की एकजुटता पर सवाल खड़े किए। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “कट्टा राज” और “जंगल राज” की याद दिलाकर मतदाताओं को प्रभावी ढंग से लामबंद किया। भले ही RJD ने लालू यादव को प्रचार से दूर रखा, मतदाताओं की पुरानी यादें NDA के पक्ष में काम कर गईं।
हरियाणा से शुरू हुआ NDA का पलटवार:
बिहार की चुनावी हार के बीज पहले हरियाणा में बोए गए थे। हालांकि कई लोगों को लग रहा था कि BJP वहां कमजोर है, पार्टी ने सबको चौंकाते हुए जीत हासिल की। कांग्रेस पर इस मौके को गंवाने के आरोप लगे।
यही पैटर्न महाराष्ट्र में भी देखा गया। लोकसभा चुनावों में हार झेलने के कुछ ही महीनों के भीतर, NDA ने विधानसभा चुनावों में जबरदस्त वापसी की और तीन-चौथाई से अधिक सीटें जीत लीं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह के नतीजे आए। जो हार अलग-अलग लग रही थी, वह एक स्पष्ट राष्ट्रीय प्रवृत्ति बनने लगी।
नया चुनावी फॉर्मूला: महिलाओं को सीधे लाभ:
इस चुनावी बदलाव का मुख्य आधार एक सीधी और प्रभावी रणनीति है: चुनावों से ठीक पहले महिलाओं को सीधे नकद हस्तांतरण।
इस रणनीति का पहला सफल प्रयोग मध्य प्रदेश में ‘लाड़ली बहना योजना’ के तहत हुआ, जिसमें मतदान से पहले महिलाओं के खातों में ₹1,500 भेजे गए। चुनाव आयोग के हस्तक्षेप न करने और योजना के बड़े चुनावी प्रभाव ने इसे सफल बनाया।
महाराष्ट्र में ‘लड़की बहिन योजना’ के तहत ₹2,500 देने के वादे ने कुछ महीनों में ही वहां के राजनीतिक माहौल को NDA के पक्ष में कर दिया। बिहार में भी इसी आजमाई हुई रणनीति ने निर्णायक भूमिका निभाई।
बिहार में क्यों चला यह दांव?
छह महीने पहले, बिहार में माहौल अलग था। नीतीश कुमार एंटी-इन्कंबेंसी का सामना कर रहे थे और उनकी राजनीतिक पारी के अंत की चर्चाएं थीं। लेकिन मुख्यमंत्री ने चुनावी रणनीति में बड़ा बदलाव किया।
चुनावों से ठीक पहले, राज्य सरकार ने महिलाओं को ₹10,000 नकद देने, 125 यूनिट बिजली मुफ्त देने और पेंशन को ₹400 से ₹1,100 तक बढ़ाने की घोषणा की। इन कदमों ने चुनावी समीकरणों को पूरी तरह से बदल दिया। नीतीश कुमार ने सालों से महिला-केंद्रित योजनाएं चलाई थीं, लेकिन इस बार के सीधे आर्थिक लाभ ने अंतिम बढ़त दिलाई।
महागठबंधन ने चुनाव जीतने पर महिलाओं को ₹30,000 देने का वादा किया, लेकिन मतदाताओं, खासकर महिलाओं ने, भविष्य के वादों के बजाय तत्काल लाभ को अधिक महत्व दिया।
जातिगत समीकरण और NDA की चतुराई:
कल्याणकारी योजनाओं के साथ-साथ, NDA ने अपनी जातिगत रणनीति को भी बेहतर बनाया। चिराग पासवान की LJP और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मंच को साथ लाने से गठबंधन को उन समुदायों का समर्थन मिला, जो 2020 में लगभग 7% वोट रखते थे।
भले ही मुकेश सहनी की VIP महागठ्बन में शामिल हो गए, लेकिन पासवान और कुशवाहा के गठबंधन ने किसी भी संभावित नुकसान की भरपाई कर दी। 2020 के बाद BJP और JD(U) के बीच या JD(U) और LJP के बीच विश्वास की कमी की चिंताएं निराधार साबित हुईं।
इसके विपरीत, भारतीय इंक्लूसिव पार्टी जैसे नए सहयोगियों के बावजूद, महागठबंधन की जातिगत रणनीति NDA की एकजुटता का मुकाबला नहीं कर सकी।
विपक्ष के लिए कठिन सबक:
बिहार के नतीजे विपक्ष के लिए एक बड़ा झटका हैं। पिछले साल के लोकसभा चुनावों में BJP के प्रदर्शन से उपजा आत्मविश्वास अब खत्म हो गया है। विपक्ष को यह समझना होगा कि वे न तो अपनी गति बनाए रख पा रहे हैं, न ही एक सुसंगत रणनीति बना पा रहे हैं, और न ही NDA की बदलती चुनावी चालों का जवाब दे पा रहे हैं।
यदि हरियाणा, महाराष्ट्र और फिर बिहार के ये चुनावी रुझान कुछ भी दर्शाते हैं, तो वह यह है कि NDA ने नए चुनावी परिदृश्य को अच्छी तरह समझ लिया है, जबकि विपक्ष अभी भी इस दौड़ में पिछड़ रहा है।
