भारत में राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ को लेकर चल रहा विवाद एक बार फिर चर्चा का विषय बन गया है। कई धार्मिक नेताओं और कुछ राजनेताओं ने स्पष्ट किया है कि वे इस राष्ट्रगीत के गायन में हिस्सा नहीं लेंगे, क्योंकि उन्हें यह अपनी धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध लगता है।
ज़ी न्यूज़ के एक विशेष विश्लेषण में, मैनेजिंग एडिटर राहुल सिन्हा ने इस संवेदनशील मुद्दे पर गहरी पड़ताल की। उन्होंने उन चरमपंथी विचारों को उजागर किया जो ‘वंदे मातरम’ का विरोध करते हैं, और उन देशभक्त आवाजों के महत्व को रेखांकित किया, जिनमें बड़ी संख्या में मुसलमान भी शामिल हैं, जो इसके गायन का समर्थन करते हैं।
हाल ही में, ‘वंदे मातरम’ की 150वीं वर्षगांठ को पूरे भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्षगांठ समारोह का शुभारंभ किया और एक विशेष डाक टिकट व स्मारक सिक्के का अनावरण किया। देशभक्ति और सांस्कृतिक विरासत के इस प्रतीक का उत्सव मनाने के लिए देश भर में कई कार्यक्रम आयोजित किए गए। महात्मा गांधी ने स्वयं कहा था कि यह गीत भारतीयों में देशभक्ति की भावना को जगाता था और राष्ट्र के लिए बलिदान देने को प्रेरित करता था।
इतिहास गवाह है कि ‘वंदे मातरम’ का विरोध नया नहीं है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और रफी अहमद किदवई जैसे प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने कुछ लोगों के ऐतराज के बावजूद इसे अपनाया और गाया। 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में, तत्कालीन अध्यक्ष रहमतुल्लाह सहित कई मुस्लिम नेताओं ने सार्वजनिक रूप से ‘वंदे मातरम’ गाया, जिसे किसी ने भी आपत्तिजनक नहीं माना।
विशेषज्ञों का मानना है कि आज का विरोध 1937 के मुस्लिम लीग के रुख की याद दिलाता है, जब मोहम्मद अली जिन्ना ने इसे धार्मिक भावनाओं के विपरीत बताया था। विश्लेषकों का कहना है कि यह विरोध एक सोची-समझी वैचारिक साजिश का हिस्सा है, न कि सच्ची धार्मिक भावना का। देशभक्ति से प्रेरित नागरिक समूहों ने विरोधियों को जवाब देने के लिए प्रतीकात्मक प्रदर्शन भी किए हैं।
‘वंदे मातरम’ ने हमेशा राष्ट्रभक्ति और देश के प्रति समर्पण की भावना को बढ़ावा दिया है। 1875 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित और ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद, इस गीत ने स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया। अशफाकउल्ला खान, मौलाना मोहम्मद अली, और सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज के सदस्यों ने इस गीत को गर्व से गाया।
इस मुद्दे पर बहस को समाप्त करते हुए, यह महत्वपूर्ण है कि चरमपंथी अपनी कट्टर सोच को छोड़कर ‘वंदे मातरम’ के ऐतिहासिक महत्व को समझें। यह गीत सभी समुदायों के देशभक्त भारतीयों के लिए एकता का प्रतीक है। ‘वंदे मातरम’ का विरोध केवल एक संकीर्ण विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है, न कि भारत की समृद्ध और समावेशी संस्कृति का।
