बिहार की राजनीति का एक ऐसा सच जो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है, वह है ‘बाहुबलियों’ का दबदबा। 2025 के चुनावों में भी यह रंग फिर से गहराता दिख रहा है, जिसे आधुनिक युवा ‘सिचुएशनशिप’ कहते हैं, उससे जोड़ा जा सकता है। बिहार में जातिगत समीकरणों का खेल इतना जटिल है कि वर्षों से ‘बाहुबली’ यानी दबंग नेता अपने समुदाय के वोटरों के सहारे आसानी से चुनाव जीतते रहे हैं। 1990 में मोहम्मद शहाबुद्दीन ने निर्दलीय जीतकर एक ऐसी राह बनाई, जिसने बिहार की राजनीति में बाहुबल, प्रभाव और संरक्षण को अहम बना दिया।
ये नेता अपने प्रभाव वाले इलाकों में पार्टी से ऊपर होते हैं। वे केवल उम्मीदवार नहीं, बल्कि ऐसे ताकतवर खिलाड़ी होते हैं जो वोट जुटा सकते हैं, लोगों को बांधे रख सकते हैं और सरकारी कामों को प्रभावित कर सकते हैं। अगले चुनाव को देखते हुए, ये बाहुबली फिर से सक्रिय हो गए हैं। पर पार्टियों और वोटरों से उनका रिश्ता हमेशा ही पेचीदा रहा है। यह एक ‘सिचुएशनशिप’ की तरह है, जहां दोनों पक्षों को एक-दूसरे की जरूरत है, लेकिन रिश्ता कभी भी पूरी तरह से पक्का नहीं होता। पार्टियां बाहुबल और पैसा चाहती हैं, बाहुबली अपनी छवि को सुधारना चाहते हैं, और आम जनता सुविधा और सुरक्षा की तलाश में रहती है।
जैसे ‘सिचुएशनशिप’ में कमिटमेंट से ज्यादा आराम देखा जाता है, वैसे ही बिहार की राजनीति में भी कानून और दबंगई का यह अनोखा मेल चलता आया है। हर चुनाव में यह रिश्ता फिर से ताज़ा हो जाता है – अस्थिर, फायदे का सौदा, लेकिन फिर भी कायम।
**आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार**
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए राजनीति और बाहुबल का पुराना रिश्ता एक बार फिर सुर्खियों में है। राज्य में 22 ऐसे उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन पर हत्या, उगाही, अपहरण और धमकी जैसे गंभीर आरोप हैं। खास बात यह है कि इनमें से नौ दिग्गज नेता राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के टिकट पर मैदान में हैं।
गहन जांच से पता चलता है कि कई बाहुबली या उनके परिवार के सदस्य सीधे चुनाव लड़ रहे हैं। कुछ जमानत पर हैं, तो कुछ राजनीति में ही अपनी जगह बना चुके हैं। मोकामा, अरवल, आरा, सिवान, वैशाली और गया जैसे इलाके फिर से चर्चा में हैं, न कि किसी विचारधारा की लड़ाई के कारण, बल्कि बाहुबलियों के बीच की सीधी टक्कर के कारण। ये जाने-पहचाने चेहरे एक बार फिर चुनावी माहौल में छाए हुए हैं।
**शहाबुद्दीन की विरासत का असर**
मोहम्मद शहाबुद्दीन का कद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के साथ जुड़ने के बाद बहुत बढ़ गया था, और उन्होंने उनके समर्थन से तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता। सिवान में शहाबुद्दीन का इतना दबदबा था कि एक दोहरे हत्याकांड में उन्हें उम्रकैद की सज़ा देने वाले जज का तबादला तब हो गया जब उन्हें एक दूसरे मामले में ज़मानत मिली। 2021 में कोरोना से उनकी मौत के बाद माहौल बदला। उनकी पत्नी हिना शहाब ने आरोप लगाया कि जेल में रहते हुए राजद ने उनसे दूरी बना ली थी। हिना शहाब ने 2024 के लोकसभा चुनाव में राजद से टिकट न मिलने पर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा।
**दल-वार बाहुबलियों की संख्या**
राजद ने सबसे ज़्यादा, नौ ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिया है जो बाहुबली छवि के लिए जाने जाते हैं। जद (यू) ने सात ऐसे प्रभावशाली नेताओं पर दांव लगाया है। भाजपा ने भी चार सीटों पर आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवार उतारे हैं, हालांकि पार्टी का कहना है कि ये आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने दो ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है।
**बाहुबली बनाम बाहुबली की लड़ाई**
मोकामा की सीट फिर से बाहुबलियों की जंग का अखाड़ा बन गई है। यहाँ ‘छोटे सरकार’ के नाम से मशहूर अनंत सिंह का मुकाबला सूरज भान सिंह की पत्नी वीणा देवी से है। ऐसी ही लड़ाई बिहार के अन्य हिस्सों में भी देखने को मिल रही है: सिवान में एक ताकतवर परिवार का उम्मीदवार फिर से उतरा है, आरा में एक पूर्व विधायक का बेटा चुनाव लड़ रहा है, और वैशाली में दो पुराने बाहुबली नेता आमने-सामने हैं।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट बताती है कि बिहार में हर पांच उम्मीदवार में से एक पर आपराधिक मामला है। चुनाव लड़ रहे 22 बाहुबलियों में से 14 पर हत्या, अपहरण या गंभीर हिंसा से जुड़े आरोप हैं। यह संख्या 2020 के मुकाबले ज़्यादा है, जब 17 ऐसे उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे।
**अनंत सिंह: मोकामा के ‘छोटे सरकार’**
अनंत कुमार सिंह की मुश्किलें 2019 में शुरू हुईं जब उनके घर से अवैध हथियार मिले और उन पर यूएपीए कानून के तहत केस दर्ज हुआ। इसके बावजूद, उन्होंने 2020 में जेल में रहते हुए राजद के टिकट पर मोकामा से चुनाव जीता, जिसमें 65,000 से ज़्यादा वोट मिले। 2021 में सज़ा होने के बाद वे चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए, लेकिन उनकी पत्नी नीलम देवी ने उपचुनाव जीता और उनका दबदबा कायम रहा। फरवरी 2025 में, नीलम देवी ने नीतीश कुमार के लिए क्रॉस-वोटिंग की, जबकि पैरोल पर रिहा अनंत सिंह ने जद (यू) नेता ललन सिंह का समर्थन किया।
**लाल गंज में मुन्ना शुक्ला की विरासत**
पूर्व विधायक और बाहुबली विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला की बेटी शिवानी शुक्ला, लालगंज (वैशाली) से राजद के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं। 28 साल की, लंदन से एलएलएम की डिग्री हासिल कर चुकीं शिवानी अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाना चाहती हैं। उनकी उम्मीदवारी से इस सीट पर नई हलचल मची है। भाजपा ने मौजूदा विधायक संजय सिंह को मैदान में उतारकर इस मुकाबले को और दिलचस्प बना दिया है।
स्थानीय लोगों की राय बंटी हुई है। कुछ शिवानी को नई पीढ़ी का नेता मानते हैं, तो कुछ लालगंज के उस दौर को याद करते हैं जब बाहुबलियों का खौफ हुआ करता था। जिन्होंने अपहरण और डकैती के दिन देखे हैं, वे इस नई छवि के पीछे पुराने दिनों की वापसी से चिंतित हैं।
**आनंद मोहन: राजपूत नेता**
उत्तर बिहार में, आनंद मोहन का सहार-सुपौल इलाके में खासा प्रभाव है। डीएम की हत्या के मामले में 14 साल से ज़्यादा जेल काटने के बाद, उन्हें अच्छे चाल-चलन के आधार पर जल्दी रिहा कर दिया गया। उनकी पत्नी लवली आनंद, जद (यू) के टिकट पर शिवहर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रही हैं, जबकि उनका बेटा चेतन आनंद राजद से दूर हो गया है। राजपूत वोटरों और कोसी-मिथिलांचल क्षेत्र में आनंद मोहन का प्रभाव आज भी कायम है, जो बिहार की राजनीति में बाहुबलियों की पकड़ को दिखाता है।
**प्रमुख बाहुबली और उनके इलाके**
राजद ने कई जाने-माने बाहुबलियों को टिकट दिया है। इनमें मोकामा से वीणा देवी, वारिसनगर से अनिता देवी, लालगंज से शिवानी शुक्ला, बेलगंग से विश्वनाथ यादव, मैसेज से दीपू रणवात, बाढ़ से करणवीर सिंह उर्फ लल्लू मुखिया, दानापुर से रीतलाल यादव, रघुनाथपुर से ओसामा शहाब और बनियापुर से चांदनी सिंह शामिल हैं।
जद (यू) की ओर से मोकामा से अनंत सिंह, एकमा से धूमल सिंह, कुचायकोट से अमरेन्द्र पांडे, मैसेज से राधा चरण शाह, नवीनगर से चेतन आनंद, मनिहारी से रणधीर सिंह और नवादा से विmha देवी जैसे मजबूत उम्मीदवार हैं।
भाजपा की ओर से वारिसनगर से अरुणा देवी, बनियापुर से केदारनाथ सिंह, तरारी से विशाल प्रशांत पांडे और शाहपुर से राकेश ओझा प्रमुख हैं।
लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने ब्रह्मपुर से हुलास पांडे और फतुहा से रूपा कुमारी को मैदान में उतारा है।
**एक अधूरा रिश्ता**
जैसे-जैसे बिहार चुनाव की ओर बढ़ रहा है, बाहुबलियों के साथ उसका यह ‘सिचुएशनशिप’ जारी है, जिसे कोई भी पक्ष खत्म नहीं करना चाहता। पार्टियां जीत के लिए इन पर निर्भर हैं, बाहुबली अपनी स्वीकार्यता के लिए पार्टियों पर, और बीच में फंसे मतदाता उम्मीद और लाचारी के बीच जूझ रहे हैं।
 
									 
					