बिहार में 2025 के विधानसभा चुनावों का माहौल गरमा गया है, और इस बार राजनीतिक प्रचार का तरीका काफी बदल गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समस्तीपुर में एक चुनावी रैली के दौरान इस नए चलन पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि विपक्षी दलों द्वारा गाए जा रहे चुनावी गाने मतदाताओं को बिहार के ‘जंगल राज’ के काले दिनों की याद दिला रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने कहा, “महागठबंधन के गानों को सुनिए। ये गानें हमें उस समय की याद दिलाते हैं जब राज्य में कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं थी। राजद-कांग्रेस के समर्थक आज भी गोलियों, देसी पिस्तौलों और बंदूकों की बात कर रहे हैं, और लोगों को घरों से खींच लाने की धमकी दे रहे हैं। उनका पूरा अभियान इसी सोच पर आधारित लगता है।” उन्होंने विशेष रूप से मगही भाषा के एक वायरल गाने “भईया के आवे दे सता में, उठा लेब घर से रे…” का ज़िक्र किया, जिसे उन्होंने महागठबंधन के डर फैलाने वाले प्रचार का उदाहरण बताया।
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी के तुरंत बाद, भाजपा और जद(यू) के नेताओं ने भी मतदाताओं को आगाह करना शुरू कर दिया कि राज्य एक बार फिर ‘अराजकता’ के दौर में जा सकता है।
**विवादित गानों का सच क्या है?**
बिहार की राजनीति में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नया नहीं है, लेकिन 2025 के चुनाव में गानों का महत्व बहुत बढ़ गया है। भोजपुरी गायक ऐसे गाने जारी कर रहे हैं जो सीधे तौर पर राजनीतिक संदेश देते हैं। इनमें से कुछ गानों में जाति विशेष के गौरव का गान किया जा रहा है, कुछ में विरोधियों पर व्यक्तिगत हमले किए जा रहे हैं, और कुछ तो सीधे चेतावनी दे रहे हैं कि ‘जब हमारी सरकार आएगी तो दुश्मनों को घर में घुसकर मारेंगे’।
यूट्यूब, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म पर इन गानों की वीडियो धड़ल्ले से वायरल हो रही हैं। कई गानों में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और उसके नेताओं का ज़िक्र साफ तौर पर किया गया है। चुनावी रैलियों और जनसभाओं में इन गानों को बजाया जा रहा है, जिससे ये आम लोगों के बीच लोकप्रिय हो गए हैं।
राजद पार्टी इन गानों से दूरी बनाती नज़र आ रही है। उनका कहना है कि ये गाने पार्टी की ओर से जारी नहीं किए गए हैं और गाने वाले गायक पार्टी से जुड़े हुए नहीं हैं।
लेकिन, कुछ गानों ने वाकई खूब सुर्खियाँ बटोरी हैं। गांधी लाल यादव का मगही गाना “भईया के आवे दे सता, उठा लेब घर से रे…” दिवाली से पहले आया और राजद के कार्यक्रमों में खूब बजा।
अमित आशिक का गाना “राजद सरकार बंटो यादव रंगदार बंटो…” तब चर्चा में आया जब भागलपुर में एक कार्यक्रम में कुछ युवक हथियार लहराते हुए नाचते हुए दिखे।
मिथलेश हलचल का गाना “लालू जी के लालटेन, तेजस्वी जी के तेल…” अगस्त-सितंबर में सोशल मीडिया पर खूब छाया रहा, और गायक ने खुद भी राजद का समर्थन किया।
भोजपुरी गायिका रोशन रोही का गाना “बन जो छोड़ी तेजस्वी यादव के जान…” तब चर्चा में आया जब इसे उस मंच पर बजाया गया जहाँ खेसारी लाल यादव भी मौजूद थे।
खुद खेसारी लाल यादव ने मई 2025 में “अहिरा… यहाँ अहीरे के चली…” गाना जारी किया, जो छपरा सीट से उनके राजद-समर्थित अभियान को मज़बूती देता है। इसके अलावा, “राजद के माल है रे…” जैसा गाना जगदीशपुर में पार्टी के कार्यक्रम में फिर से बजाए जाने के बाद वायरल हो गया।
इनके अलावा, “तेजस्वी के बिना सुधार न होई, भाई लालू बिना चालू ई बिहार न होई…” और “लालटेन पर बटन दबाई दिह न, भईया तेजस्वी के जिताई दिह न…” जैसे गाने भी लोगों के मोबाइल पर खूब शेयर हो रहे हैं।
**क्या दूसरे दल भी ऐसे ही गाने गा रहे हैं?**
भाजपा, जद (यू), कांग्रेस और जन सुराज पार्टी भी संगीत का इस्तेमाल कर रही हैं, लेकिन उनके गानों में आमतौर पर राजद से जुड़े गानों जैसी आक्रामक बंदूक या जातिगत भाषा का प्रयोग कम है।
लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान के समर्थन में एक गाने की लाइन “चिराग भईया के आवे दे सता, उठा लेब घर से रे…” काफी मिलती-जुलती है।
भाजपा की ओर से, पूर्व सांसद निरहुआ “आया है युग उत्थान का…” जैसे गाने गा रहे हैं। गायक सूरज कुमार “जाग उठा है यूपी देखो… बिहार में ता मोदी बा…” गाते हैं, जबकि अभिषेक सिंह “भाजपा के गमछिया गेरुआ बांध ले अपना सिर हो…” जैसे नारों से समर्थकों को प्रेरित कर रहे हैं।
जद (यू) के प्रशांत सिंह “25 से 30 फिर से नीतीश…” में मुख्यमंत्री की तारीफ करते हैं, और जन सुराज के रितेश पांडेय “हर घर के आवाज़ बढ़ें… आने वाला जन सुराज बढ़ें, जनता ही हो मालिक…” जैसे गानों से अपने आंदोलन का प्रचार कर रहे हैं।
**इन गानों का क्या असर हो सकता है?**
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा उत्तर प्रदेश की तर्ज पर काम कर रही है। उनका मानना है कि पार्टी ‘जंगल राज’ की पुरानी यादों को ताजा करके अगड़ी और पिछड़ी जातियों को एकजुट करना चाहती है, जैसा उन्होंने 2022 के यूपी चुनावों में कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर किया था।
कुछ विश्लेषकों की राय थोड़ी अलग है। वे मानते हैं कि लोग इन भोजपुरी और मगही गानों को सिर्फ मनोरंजन के तौर पर देखते हैं। गाने बजते हैं, लोग नाचते हैं और फिर भूल जाते हैं। उन्हें नहीं लगता कि लोग इन गानों के आधार पर सीधे वोट बदलेंगे, क्योंकि ये गाने विभिन्न जाति समूहों तक पहुंचते हैं और अक्सर पार्टी के आधिकारिक गाने नहीं होते।
विश्लेषकों का कहना है कि बिहार में 2025 के चुनावों के लिए लगभग 7.42 करोड़ मतदाता हैं, जिनमें से करीब 1.75 करोड़ युवा (1997-2012 के बीच जन्मे) हैं। इन युवाओं ने ‘जंगल राज’ को कभी सीधे तौर पर अनुभव नहीं किया है। इसलिए, भाजपा इन डराने वाले गानों के ज़रिए उनकी कल्पना में उस अतीत को रचने की कोशिश कर सकती है जिसे उन्होंने कभी देखा ही नहीं।
इस साल का चुनाव सिर्फ रैलियों और भाषणों का नहीं, बल्कि गानों की जंग का भी है। पहचान, रुबाब और छिपी हुई धमकियों से भरे गानों के बोल, भले ही घोषणापत्रों में वादे न हों, चुपके से लोगों की राय बदल सकते हैं।
भाजपा को उम्मीद है कि “भईया के आवे दे सता में, उठा लेब घर से…” जैसे गाने पहली बार वोट देने वाले युवाओं में डर पैदा करेंगे और विपक्ष को एक ख़तरे के रूप में पेश करेंगे। वहीं, महागठबंधन का कहना है कि ये तो बस ज़मीनी हकीकत से जुड़े सांस्कृतिक संकेत हैं।
चाहे जो भी हो, इस चुनाव में लाउडस्पीकर से निकलने वाली आवाज़ें, ईवीएम में डाले जाने वाले वोटों जितनी ही महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं।
