बॉलीवुड में हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म ‘हक़’ एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित है जिसने भारत में महिलाओं के अधिकारों और धार्मिक कानूनों पर बहस छेड़ दी थी। फिल्म में अभिनेत्री यामी गौतम ने शाह बानो बेगम का किरदार निभाया है, जो 62 साल की उम्र में अपने पति से गुजारा-भत्ता मांगने के लिए अदालत गईं। उनकी यह लड़ाई सिर्फ व्यक्तिगत नहीं थी, बल्कि इसने पूरे देश को न्याय और धर्मनिरपेक्षता पर सोचने पर मजबूर कर दिया। यह कहानी 1985 के उस सुप्रीम कोर्ट फैसले से प्रेरित है जिसने देश को हिलाकर रख दिया था।
यह फिल्म न केवल शाह बानो के संघर्ष को दर्शाती है, बल्कि उसके इर्द-गिर्द बुने गए कानूनी और राजनीतिक दांव-पेंच को भी सामने लाती है। दिलचस्प बात यह है कि फिल्म की रिलीज़ से पहले ही, शाह बानो की बेटी ने फिल्म निर्माताओं पर कहानी के अनधिकृत उपयोग का आरोप लगाते हुए कानूनी कार्रवाई की है।
**कैसे शुरू हुई शाह बानो की अदालती यात्रा?**
1978 में, इंदौर की शाह बानो बेगम के पति, एक वकील, ने उन्हें तलाक दे दिया। उन्होंने तीन बार ‘तलाक’ बोलकर रिश्ता खत्म कर लिया और कुछ महीनों के लिए कुछ पैसे दिए, जिसके बाद उन्होंने कोई समर्थन नहीं दिया। लाचार शाह बानो ने गुजारा-भत्ते के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 का सहारा लिया, जो तलाकशुदा महिलाओं को भी भरण-पोषण का अधिकार देती है, बशर्ते वे दोबारा शादी न करें और खुद का भरण-पोषण न कर सकें।
उनके पति ने तर्क दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत, ‘इद्दत’ (तलाक के बाद की तीन महीने की अवधि) के बाद उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘मेहर’ की राशि और इद्दत अवधि के दौरान किए गए खर्चों से उनके सभी दायित्व पूरे हो गए थे। शुरुआत में, स्थानीय अदालत ने उन्हें मासिक 25 रुपये देने का आदेश दिया, जिसे बाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने बढ़ाकर 179.20 रुपये कर दिया। इस फैसले के खिलाफ उनके पति ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
**सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और देशव्यापी प्रतिक्रिया:**
23 अप्रैल, 1985 को, सुप्रीम कोर्ट की एक पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने माना कि CrPC की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष कानून है और यह सभी नागरिकों पर लागू होता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एक मुस्लिम महिला भी ‘इद्दत’ की अवधि के बाद भरण-पोषण की हकदार है, अगर वह खुद का ख्याल रखने में सक्षम न हो। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि समान नागरिक संहिता (UCC) का संवैधानिक वादा अभी भी पूरा नहीं हुआ है।
इस फैसले ने देश भर में, विशेषकर मुस्लिम समुदाय में, एक बड़ी बहस छेड़ दी। कई लोगों ने इसे शरिया कानूनों में दखलअंदाजी माना और विरोध प्रदर्शन किए। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया।
**सरकारी हस्तक्षेप और नए कानून का निर्माण:**
जनता के दबाव और राजनीतिक समीकरणों के चलते, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम’ पारित किया। इस कानून ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया और यह प्रावधान किया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को केवल ‘इद्दत’ की अवधि तक ही भरण-पोषण मिलेगा। इसके बाद, उनकी देखभाल की जिम्मेदारी उनके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड की होगी। इसी साल उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद के दरवाजे खोले गए, जिसने देश के धार्मिक और राजनीतिक परिदृश्य को और प्रभावित किया।
**कानूनी लड़ाई का जारी रहना और अंतिम स्पष्टीकरण:**
1986 के कानून को दानियल लतीफी, जिन्होंने शाह बानो का प्रतिनिधित्व किया था, ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 2001 में, एक नई पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने 1986 के अधिनियम को बरकरार रखा, लेकिन इसे एक विस्तृत व्याख्या दी। पीठ ने कहा कि पति को ‘इद्दत’ अवधि में भुगतान करना होगा, लेकिन यह राशि इतनी होनी चाहिए कि तलाकशुदा पत्नी जीवन भर अपना गुजारा कर सके, जब तक वह दोबारा शादी न करे।
हालांकि, इस फैसले के बाद भी यह सवाल बना रहा कि क्या मुस्लिम महिलाएं CrPC की धारा 125 के तहत भी गुजारा-भत्ता मांग सकती हैं। 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने ‘मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य’ मामले में इस मुद्दे पर अंतिम फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्न और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि 1986 का अधिनियम महिलाओं के CrPC के तहत अपने अधिकार का प्रयोग करने से नहीं रोकता। दोनों कानून साथ-साथ चल सकते हैं और एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला दोनों में से किसी भी रास्ते को चुन सकती है।
**शाह बानो की विरासत:**
लगभग चार दशक पहले शुरू हुई शाह बानो की न्याय की लड़ाई आज भी प्रासंगिक है। उनकी कहानी ने दिखाया है कि कैसे एक महिला का संघर्ष देश के सामाजिक और कानूनी ताने-बाने को बदल सकता है। ‘हक़’ फिल्म इस अविस्मरणीय कहानी को बड़े पर्दे पर लाती है, जो आज भी यह सवाल उठाती है कि न्याय का असली मतलब क्या है, खासकर उन महिलाओं के लिए जो अपनी गरिमा के साथ समझौता नहीं करतीं।
