शीत युद्ध के चरम पर, 1965 में, हिमालय की शांत ऊंचाइयों पर एक अत्यंत गुप्त मिशन को अंजाम दिया गया था। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए (CIA) और भारतीय पर्वतारोहियों का एक संयुक्त दल नंदा देवी के शिखर पर एक शक्तिशाली, प्लूटोनियम-संचालित जनरेटर स्थापित करने के लिए निकला था। इसका उद्देश्य चीन की परमाणु गतिविधियों पर गुप्त निगरानी रखना था, खासकर उसके हालिया परमाणु परीक्षणों के बाद।
यह उपकरण, जिसे SNAP-19C कहा जाता था, लगभग 13 किलोग्राम प्लूटोनियम लेकर चलता था, जो इसे बेहद खतरनाक बनाता था। इसे एक वैज्ञानिक अभियान के भेष में ले जाया गया था, लेकिन इसका असली मकसद खुफिया जानकारी जुटाना था। यह अमेरिकी वायु सेना के प्रमुख जनरल कर्टिस लेमे और नेशनल ज्योग्राफिक के फोटोग्राफर बैरी बिशप के एक विचार से उपजा था, जिन्होंने हिमालय की चोटियों की सामरिक महत्ता को पहचाना था।
जिम मैककार्थी जैसे युवा अमेरिकी पर्वतारोहियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर इस खतरनाक मिशन के लिए काम पर रखा गया था, जबकि भारतीय सेना के कैप्टन एमएस कोहली इस योजना की व्यावहारिकता पर शुरू से ही संदेह करते रहे। कंचनजंगा जैसे ऊंचे पहाड़ों पर इसे स्थापित करने के प्रारंभिक विचार को कोहली ने ‘मूर्खतापूर्ण’ करार दिया था। आखिरकार, नंदा देवी को चुना गया, जो उस समय एक कम ज्ञात लेकिन अत्यधिक दुर्गम शिखर था।
मिशन को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। पर्वतारोहियों को उचित अनुकूलन के बिना उच्च ऊंचाई पर ले जाया गया, जिससे कई बीमार पड़ गए। हैरानी की बात यह है कि प्लूटोनियम जनरेटर से निकलने वाली गर्मी ने उन्हें ठंड में एक अजीब आराम प्रदान किया। कई पर्वतारोहियों को बाद में पता चला कि वे जिस उपकरण को ले जा रहे थे, वह कितना खतरनाक था।
16 अक्टूबर, 1965 को, जब दल शिखर के करीब था, एक भयंकर बर्फीले तूफान ने उन्हें घेर लिया। जान बचाने के लिए, कैप्टन कोहली ने उपकरण को पीछे छोड़ने का आदेश दिया। यह निर्णय पर्वतारोहियों के लिए भारी पड़ा, खासकर मैककार्थी के लिए, जिन्होंने इस कदम को एक ‘बहुत बड़ी गलती’ बताया। जनरेटर और एंटीना को एक बर्फीली चट्टान पर छोड़ दिया गया, जो अब इतिहास का हिस्सा बन गया।
अगले वर्ष, दल ने उपकरण को वापस लाने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें केवल खालीपन मिला। एक भयंकर हिमस्खलन ने उस जगह को नष्ट कर दिया था जहां उपकरण छोड़ा गया था। सीआईए के अधिकारी घबरा गए, यह समझते हुए कि एक अत्यंत खतरनाक परमाणु उपकरण अब हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र में खो गया है। कई खोज अभियानों के बावजूद, उपकरण का कोई निशान नहीं मिला। यह माना जाता है कि प्लूटोनियम की गर्मी ने इसे ग्लेशियर में पिघलाकर नीचे पहुंचा दिया।
यह रहस्य 1978 तक दबा रहा, जब आउटसाइड पत्रिका में हॉवर्ड कोहन के एक लेख ने इस घटना को उजागर किया। इससे भारत में सार्वजनिक आक्रोश फैल गया, और प्रदर्शनकारियों ने सीआईए पर पर्यावरणीय क्षति का आरोप लगाया। अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर और भारत के प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने मिलकर इस कूटनीतिक संकट को संभाला, हालांकि दोनों सरकारों ने सार्वजनिक रूप से चुप्पी साधे रखी।
आज, मिशन में शामिल लोग बूढ़े हो चुके हैं या उनका निधन हो चुका है। जिम मैककार्थी, जो अब 90 के दशक में हैं, उस समय के फैसले पर खेद व्यक्त करते हैं और गंगा जैसी पवित्र नदियों पर इसके संभावित खतरे के बारे में चिंतित हैं। कैप्टन कोहली ने भी इस मिशन को अपने जीवन का एक ‘दुखद अध्याय’ बताया, जिसमें सीआईए की अदूरदर्शिता और उनके द्वारा की गई गलतियों पर जोर दिया। यह घटना शीत युद्ध की छिपी हुई कहानियों का एक कड़वा रिमाइंडर बनी हुई है, जिसमें पर्यावरण और मानव जीवन के लिए अनजाने खतरे छिपे थे।
