झारखंड के कोडरमा जिले में एक ऐसी परंपरा देखने को मिलती है जो आधुनिक समाज के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है। यहां के एक गांव में, मवेशियों को चराने का काम किसी एक व्यक्ति या समूह का नहीं, बल्कि बारी-बारी से पूरे गांव के परिवारों का है। यह सामूहिक पशु चराई की प्रथा, जो दशकों पुरानी है, सामुदायिक एकता और आपसी सहयोग की अद्भुत मिसाल पेश करती है।
इस अनूठी व्यवस्था की शुरुआत गांव के बुज़ुर्गों ने आपसी सहमति से की थी। उनका उद्देश्य था कि हर परिवार को अपने मवेशियों को चराने के झंझट से मुक्ति मिले और वे अपने अन्य महत्वपूर्ण कार्यों पर ध्यान केंद्रित कर सकें। अब, हर दिन गांव का एक परिवार बारी-बारी से पूरे गांव के पशुधन को चराने की जिम्मेदारी लेता है।
यह प्रथा पूरी तरह से स्वैच्छिक और अनुशासित है। हर सुबह, गांव के सभी पशुओं को एक निर्धारित स्थान पर एकत्र किया जाता है, और फिर जिस परिवार की बारी होती है, वह उन्हें लेकर चरने जाता है। इस काम में किसी भी तरह की कोताही बर्दाश्त नहीं की जाती, और अनुशासनात्मक कार्रवाई के तौर पर जुर्माना भी लगाया जाता है।
गांव वाले इस परंपरा को अपनी सांस्कृतिक धरोहर का एक अहम हिस्सा मानते हैं और इसे जीवित रखने में गर्व महसूस करते हैं। यह प्रथा न केवल समय और श्रम की बचत करती है, बल्कि गांव में भाईचारे और एकजुटता को भी मजबूत करती है। कोडरमा की यह परंपरा दिखाती है कि कैसे आपसी समझ और सहयोग से कठिन कार्य भी सुगम बनाए जा सकते हैं।