अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री, मौलाना अमीर खान मुत्तकी ने हाल ही में भारत की अपनी यात्रा के दौरान देवबंद स्थित दारुल उलूम मदरसा का दौरा किया। यह यात्रा भारत और तालिबान के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकती है। 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से यह मुत्तकी की पहली भारत यात्रा है, जो इस क्षेत्र के साथ मजबूत ऐतिहासिक और धार्मिक संबंधों को रेखांकित करती है।
देवबंद मदरसे में उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। मदरसे के प्रमुख उलेमाओं ने उनकी अगवानी की और छात्रों व शिक्षकों ने पुष्प वर्षा कर उनका अभिनंदन किया। इस अवसर पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए थे। मुत्तकी ने मदरसे के इतिहास और शिक्षा प्रणाली में गहरी रुचि दिखाई।
दारुल उलूम के मुख्य पुस्तकालय में, मुत्तकी ने एक विद्वतापूर्ण सत्र में भाग लिया, जहाँ उन्होंने हदीस का अध्ययन किया। इसके बाद, उन्हें हदीस पढ़ाने का अधिकार दिया गया और ‘सनद’ (प्रमाण पत्र) प्रदान किया गया। इससे उन्हें ‘कासमी’ की उपाधि प्राप्त हुई, जो देवबंद के विद्वानों से जुड़ा एक प्रतिष्ठित सम्मान है। अब वे अपने नाम के साथ ‘कासमी’ जोड़ सकते हैं।
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने इस मुलाकात को दोनों देशों के बीच शैक्षिक संबंधों के पुनर्जीवन के रूप में देखा। उन्होंने कहा कि मुत्तकी का देवबंद आना अपनी जड़ों से जुड़ने जैसा है। विदेश मंत्री मुत्तकी ने भारत में मिले गर्मजोशी भरे स्वागत के लिए आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि यह स्वागत उन्हें भारत-अफगानिस्तान संबंधों के बेहतर भविष्य की आशा देता है। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि दोनों देश अपने राजनयिक संबंधों को मजबूत करेंगे और नए राजदूत नियुक्त किए जा सकते हैं।
यह दौरा भारत की अफगानिस्तान के प्रति कूटनीतिक रणनीति का एक अहम हिस्सा है। हालांकि भारत ने तालिबान सरकार को आधिकारिक मान्यता नहीं दी है, लेकिन संवाद के रास्ते खुले रखना चाहता है। मुत्तकी, जो भारत आने वाले सबसे वरिष्ठ तालिबान नेता हैं, ने शुक्रवार को भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर से भी मुलाकात की थी।
मुत्तकी ने देवबंद के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह दुनिया भर के मुसलमानों के लिए एक प्रमुख धार्मिक और शैक्षिक केंद्र है। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान का देवबंद से सदियों पुराना रिश्ता है और वे चाहते हैं कि अफगान छात्र यहां धार्मिक शिक्षा प्राप्त करते रहें।
दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 19वीं सदी के उत्तरार्ध में हुई थी और यह इस्लामी शिक्षा का एक प्रतिष्ठित संस्थान है। यह संस्थान छात्रों को कुरान और हदीस के ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न अन्य विषयों में भी प्रशिक्षित करता है। यहां तक कि छात्रों को भारतीय संस्कृति और विभिन्न धर्मों को समझने के लिए हिंदू धर्म और दर्शन का भी अध्ययन कराया जाता है।
अफगानिस्तान में देवबंद का प्रभाव बहुत गहरा है। कई तालिबान नेताओं की देवबंद से जुड़ी विचारधारा है। यह प्रभाव पाकिस्तान के देवबंद विचारधारा वाले मदरसों में भी देखा जा सकता है, जिसने तालिबान के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
यह यात्रा केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व भी रखती है। इसने भारत और अफगानिस्तान के बीच सदियों पुराने शैक्षिक और धार्मिक संबंधों को फिर से स्थापित करने में मदद की है। तालिबान विदेश मंत्री के लिए, देवबंद का दौरा अपनी आध्यात्मिक पहचान को मजबूत करने और भारत के साथ सांस्कृतिक कूटनीति को बढ़ावा देने का एक रणनीतिक कदम था।